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मुझसे तुम कुछ कहना चाहो

उस पल को मैं ढूंढ रहा हूँ सोचों में तुम बसना चाहो भावों में तुम बहना चाहो मुझसे तुम कुछ कहना चाहो बीते पल जो कड़वे थे कुछ आशाओं के टुकड़े थे कुछ आंसू बनके निकले थे कुछ अब तुम आगे बढ़ना चाहो मुझसे तुम कुछ कहना चाहो गुज़रे कल के अफ़सानों को जो अपने थे उन बेगानों को रोकर के निकाले तूफानों को भूल के तुम अब हंसना चाहो मुझसे तुम कुछ कहना चाहो इन यादों की अंगड़ाईयों में अंतर्मन की गहराइयों में मेरी अपनी तन्हाइयों में मेरे संग तुम रहना चाहो मुझसे तुम कुछ कहना चाहो अपने ग़म को मुझको देकर खुशियों की हरियाली लेकर जीवन के पथरीले पथपर बन हमराही चलना चाहो मुझसे तुम कुछ कहना चाहो... प्रकाश पाखी।

न्याय

ऐसे कैसे पैसे से बिक कर बस हो जाता न्याय मासूमों को कुचल किनारे थक कर फिर सो जाता न्याय रूपये भर की रिश्वत पर तीस साल तक केस चले जेलों की कोठरियों में जाकर फिर खो जाता न्याय तगड़े तगड़े पैसे वाले तगड़े उनके पैरोकार हार मानकर हामी भरता इनके घर जो जाता न्याय अरबों खरबों लूट गए देखो फिर भी छूट गए रामम नामम सत्यम फिर ऐसे ही हो जाता न्याय ईंट ईंट का बना घरौंदा तिनका तिनका छत बनी बुलडोजर से बिखर जाए तो हो बेघर रो जाता न्याय पेट किसी का फाड़ दिया लूटी अस्मत मार दिया अब सुधरेगा कम आयु है बच्चा तब हो जाता न्याय धनवानों की रक्षा करता उनका अपना प्यारा श्वान हाथ गरीबों के तोते सा उड़ जाता खो जाता न्याय। प्रकाश पाखी।

सोने सी सच्ची वो मुझको रोज मनाती मेरी माँ

चैन से सारी रात मैं सोता, जागी रहती मेरी मां  नींद उमचता जब भी मैं तो थपकी देती मेरी मां आंगन में  किलकारी भर भर ता ता थैया दौड़ा था जब भी गिरने लगता था मैं पीछे रहती मेरी मां पट्टी पुस्‍तक, बस्‍ता देकर छोड़ तो आई थी मुझको  शाला में रोता था मैं और घर पर रोती मेरी मां गुस्से पर उसके गुस्सा कर मैं भूखा सो जाता   था   मेरे खाना खा लेने तक रहती भूखी मेरी मां अपनी गलती पर भी झगड़ा कर मैं रूठा करता था सोने सी सच्ची वो मुझको रोज मनाती मेरी   माँ   कक्षा में अव्वल आकर जब उसके अंक लिपटता था आंखों में आंसू भर कर बस हंसती रहती मेरी मां उम्र हुई है लेकिन अब भी वो जैसे की तैसी है बेटे ने खाना खाया क्या पूछा करती मेरी माँ      प्रकाश पाखी 

आजनाइशों से मेरे ऐतबार गुज़रे है

हम गली से उनकी क्यों बार बार गुज़रे हैं बे अना लगे उन्हें नागवार गुजरे है बेरुखी थी फ़िक्र भी खिदमतों की चाह भी आजमाईशों से मेरे ऐतबार गुज़रे हैं चाहतों की जंग में गिर पड़े जो तुम तो क्या राहे ईश्क गिर पड़े शहसवार गुज़रे है जीत के जहाँ कई खाकसार हो गए कोहे वक्त में कई जीत हार गुज़रे है कौम पर जो मर मिटे जिंदगी उन्हीं की है इस जहाँ में बाकि सब बन के भार गुज़रे है। -प्रकाश पाखी अना-स्वाभिमान. कोहेवक्त-समय की गुफा

मोम सी तुम आती नज़र, बस पिघलती नहीं...

आसमाँ से जमीं सी तुम मगर मिलती नहीं इस तरह मेरे ख़यालों से भी निकलती नहीं आतिशे ईश्क का दरिया भी मैंने बहा डाला मोम सी तुम आती नजर, बस पिघलती नहीं उम्र की कमसिन नदी सी शुरुआत यहीं से है कब जवानी भला इन ढलानों से फिसलती नहीं हौसला गर न तुम बढ़ाती मेरा बस खामोश रहकर तुमको पाने की तमन्ना भी इस कदर मचलती नहीं आशियाने में ही आजाओ मेरे इक सलीका लेकर बेतरतीब सी जिंदगानी अब मुझसे संभलती नहीं प्रकाश पाखी

एक कविता याद पुरानी

जिन गलियों में तुम और मैं कदम कदम पर साथ चले उन गलियों की उड़ती धूल मन में मीलों महक रही है चौराहे पर कितने घण्टे बातें करते बिता दिए थे मूंगफलियों के बिखरे छिलके कुछ कुछ दानें मेरे भी थे वो परीक्षा की तैयारी कितनी रातों साथ जगे थे चाय बनाना किसकी बारी चुस्की चुस्की याद मुझे है होटल की वो आधी चाय पूरा पूरा दिन ले लेती ऊंचे सुर के हंसी ठहाके खुश खुश चेहरे आज कहाँ है बारातों में घोड़ी आगे नच नच भंगड़े जो किये थे इक लड़की जो ताने कसती खिल खिल हंसती यादों में है मूवी में जो तीखी सीटी बजा बजा कर मजे लिए थे आगे बैठी सुंदर लड़की अंदर अंदर बसी हुई है मंदिर चढ़ कर चढ़े चढ़ावे कर बंटवारा बांटे जो थे उनको खाते देखे सपने सच सच कहना आज कहाँ है -प्रकाश पाखी (जून 1994 को दोस्तों की याद में लिखी एक पुरानी कविता)

आसमान पे मन सवार क्यूँ

इस  कदर दिल बेकरार क्यूँ तेरे जिक्र का इंतज़ार क्यूँ तेरी आरजू बस न और कुछ आसमान पे मन सवार क्यूँ हंस के ना कहो तोड़ दो ये दिल कत्ल हो मेरा बारबार क्यूँ काँटों से भरी तेरी राह क्यूँ ईश्क हो मेरा तारतार क्यूँ गर है प्यार जो नेमते खुदा घर में प्यार के ग़म हज़ार क्यों तुम हो जानती मेरे मन में क्या बेरुख़ी अब मेरे यार क्यूँ। -प्रकाश पाखी

ज़ब से जानी ग़म की फितरत...

दर्द बिखरा है यहाँ पर है हंसी सोई हुई चैन किसको,हर जग़ह ज़ब बेबसी सोई हुई उस पिता का दर्द देखो नूर जिसका चल दिया आज है ताबूत में इक वापसी सोई हुई बाग़ था ख़ामोश बिलकुल रात रोई रात भर वहशियों ने ज़ब कुचल दी हर कली सोई हुई चाँद से आई उतरकर डालियों पर झूल कर मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई जब से जानी ग़म की फितरत फ़िक्र मैं करता नहीं पास में हर ग़म के जो थी इक ख़ुशी सोई हुई। प्रकाश पाखी