सोने सी सच्ची वो मुझको रोज मनाती मेरी माँ
चैन से सारी रात मैं सोता, जागी रहती मेरी मां नींद उमचता जब भी मैं तो थपकी देती मेरी मां आंगन में किलकारी भर भर ता ता थैया दौड़ा था जब भी गिरने लगता था मैं पीछे रहती मेरी मां पट्टी पुस्तक, बस्ता देकर छोड़ तो आई थी मुझको शाला में रोता था मैं और घर पर रोती मेरी मां गुस्से पर उसके गुस्सा कर मैं भूखा सो जाता था मेरे खाना खा लेने तक रहती भूखी मेरी मां अपनी गलती पर भी झगड़ा कर मैं रूठा करता था सोने सी सच्ची वो मुझको रोज मनाती मेरी माँ कक्षा में अव्वल आकर जब उसके अंक लिपटता था आंखों में आंसू भर कर बस हंसती रहती मेरी मां उम्र हुई है लेकिन अब भी वो जैसे की तैसी है बेटे ने खाना खाया क्या पूछा करती मेरी माँ प्रकाश पाखी समीर जी की एक पोस्ट उन्होंने अपनी माँ पर लिखी थी ...काफी देर तक पढ़ कर कुछ भी नहीं कह पाया कुछ पंक्तियाँ जेहन में आई और कई दिनों तक अपनी माँ से दूर रहने से उनकी याद आई और आँखों में कुछ नमी सी आई ...वह एक ऐसी पोस्ट थी जिसे पढ़ कर कुछ भी टिप्पणी नहीं ...