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तो फिर ये दूरियां क्यों है?

उफ़्फ़!!तुम्हारे यह अक्षर! सुंदर हैं तुम्हारी ही तरह तुम्हारे ही भावों में लिपट कर पहुंच जाते है मेरे अंतर्मन में और उठा देते हैं कई तूफान देह और रूह के बीच की गहरी अँधेरी घाटियों में। तुम्हारी मुस्कुराती हुई तस्वीर मेरे ख़यालों की अंतहीन दूरियों में सहसा खो जाती हैं पर कभी ओझल नहीं होती तुम हर वक्त मेरी बाहों में सिमटी हुई रहती हो और मैं तुम्हारे होठ चूम लेता हूँ आंख खुलने से पहले। तुम्हारी खनकती हुई हँसी और मधुर प्यारी सी बातें मदहोश मुझे कर देती हैं तुम भी तो इंतजार करती हो मेरे ईशारों का और ईशारों में ही कह देती हो सब कुछ तुम जानती तो हो यह सब तो फिर ये दूरियां क्यों है? प्रकाश पाखी