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आजनाइशों से मेरे ऐतबार गुज़रे है

हम गली से उनकी क्यों बार बार गुज़रे हैं बे अना लगे उन्हें नागवार गुजरे है बेरुखी थी फ़िक्र भी खिदमतों की चाह भी आजमाईशों से मेरे ऐतबार गुज़रे हैं चाहतों की जंग में गिर पड़े जो तुम तो क्या राहे ईश्क गिर पड़े शहसवार गुज़रे है जीत के जहाँ कई खाकसार हो गए कोहे वक्त में कई जीत हार गुज़रे है कौम पर जो मर मिटे जिंदगी उन्हीं की है इस जहाँ में बाकि सब बन के भार गुज़रे है। -प्रकाश पाखी अना-स्वाभिमान. कोहेवक्त-समय की गुफा

मोम सी तुम आती नज़र, बस पिघलती नहीं...

आसमाँ से जमीं सी तुम मगर मिलती नहीं इस तरह मेरे ख़यालों से भी निकलती नहीं आतिशे ईश्क का दरिया भी मैंने बहा डाला मोम सी तुम आती नजर, बस पिघलती नहीं उम्र की कमसिन नदी सी शुरुआत यहीं से है कब जवानी भला इन ढलानों से फिसलती नहीं हौसला गर न तुम बढ़ाती मेरा बस खामोश रहकर तुमको पाने की तमन्ना भी इस कदर मचलती नहीं आशियाने में ही आजाओ मेरे इक सलीका लेकर बेतरतीब सी जिंदगानी अब मुझसे संभलती नहीं प्रकाश पाखी

एक कविता याद पुरानी

जिन गलियों में तुम और मैं कदम कदम पर साथ चले उन गलियों की उड़ती धूल मन में मीलों महक रही है चौराहे पर कितने घण्टे बातें करते बिता दिए थे मूंगफलियों के बिखरे छिलके कुछ कुछ दानें मेरे भी थे वो परीक्षा की तैयारी कितनी रातों साथ जगे थे चाय बनाना किसकी बारी चुस्की चुस्की याद मुझे है होटल की वो आधी चाय पूरा पूरा दिन ले लेती ऊंचे सुर के हंसी ठहाके खुश खुश चेहरे आज कहाँ है बारातों में घोड़ी आगे नच नच भंगड़े जो किये थे इक लड़की जो ताने कसती खिल खिल हंसती यादों में है मूवी में जो तीखी सीटी बजा बजा कर मजे लिए थे आगे बैठी सुंदर लड़की अंदर अंदर बसी हुई है मंदिर चढ़ कर चढ़े चढ़ावे कर बंटवारा बांटे जो थे उनको खाते देखे सपने सच सच कहना आज कहाँ है -प्रकाश पाखी (जून 1994 को दोस्तों की याद में लिखी एक पुरानी कविता)

आसमान पे मन सवार क्यूँ

इस  कदर दिल बेकरार क्यूँ तेरे जिक्र का इंतज़ार क्यूँ तेरी आरजू बस न और कुछ आसमान पे मन सवार क्यूँ हंस के ना कहो तोड़ दो ये दिल कत्ल हो मेरा बारबार क्यूँ काँटों से भरी तेरी राह क्यूँ ईश्क हो मेरा तारतार क्यूँ गर है प्यार जो नेमते खुदा घर में प्यार के ग़म हज़ार क्यों तुम हो जानती मेरे मन में क्या बेरुख़ी अब मेरे यार क्यूँ। -प्रकाश पाखी