आजनाइशों से मेरे ऐतबार गुज़रे है
हम गली से उनकी क्यों बार बार गुज़रे हैं बे अना लगे उन्हें नागवार गुजरे है बेरुखी थी फ़िक्र भी खिदमतों की चाह भी आजमाईशों से मेरे ऐतबार गुज़रे हैं चाहतों की जंग में गिर पड़े जो तुम तो क्या राहे ईश्क गिर पड़े शहसवार गुज़रे है जीत के जहाँ कई खाकसार हो गए कोहे वक्त में कई जीत हार गुज़रे है कौम पर जो मर मिटे जिंदगी उन्हीं की है इस जहाँ में बाकि सब बन के भार गुज़रे है। -प्रकाश पाखी अना-स्वाभिमान. कोहेवक्त-समय की गुफा