एक कविता याद पुरानी

जिन गलियों में तुम और मैं
कदम कदम पर साथ चले
उन गलियों की उड़ती धूल
मन में मीलों महक रही है

चौराहे पर कितने घण्टे
बातें करते बिता दिए थे
मूंगफलियों के बिखरे छिलके
कुछ कुछ दानें मेरे भी थे

वो परीक्षा की तैयारी
कितनी रातों साथ जगे थे
चाय बनाना किसकी बारी
चुस्की चुस्की याद मुझे है

होटल की वो आधी चाय
पूरा पूरा दिन ले लेती
ऊंचे सुर के हंसी ठहाके
खुश खुश चेहरे आज कहाँ है

बारातों में घोड़ी आगे
नच नच भंगड़े जो किये थे
इक लड़की जो ताने कसती
खिल खिल हंसती यादों में है

मूवी में जो तीखी सीटी
बजा बजा कर मजे लिए थे
आगे बैठी सुंदर लड़की
अंदर अंदर बसी हुई है

मंदिर चढ़ कर चढ़े चढ़ावे
कर बंटवारा बांटे जो थे
उनको खाते देखे सपने
सच सच कहना आज कहाँ है
-प्रकाश पाखी
(जून 1994 को दोस्तों की याद में लिखी एक पुरानी कविता)

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

यूँ तो किस किस को ना कहा दोषी

सोने सी सच्ची वो मुझको रोज मनाती मेरी माँ

इस तल्ख़ दुनियाँ में भी कोई तो अपना निकला